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गोकुल में खेली गई छड़ीमार होली, जानें क्या है महत्व

कृष्ण नगरी मथुरा की होली पूरे सबाब पर है। रंगों के इस उत्सव में पूरा मथुरा डूबा हुआ है। क्या बरसाना, क्या नंद गांव ,क्या गोकुल, क्या ब्रज और क्या वृंदावन? सब रंगों से सराबोर है।

सज-धजकर नंद भवन पहुंचीं हुरियारिन
बरसाना और नंदगांव में लट्ठमार होली के बाद गोकुल में आज छड़ीमार होली खेली गई। भगवान के बाल स्वरूप को ध्यान में रखते हुए गोकुल की हुरियारिनों ने कान्हा के साथ जमकर होली खेली। सबसे पहले गोकुल की हुरियारिन सज-धजकर नंद भवन पहुंचीँ और वहां से कृष्ण स्वरूपों के साथ नंद भवन में विराजमान कान्हा के विग्रह को डोले में विराजमान कराकर गोकुल की नंद गलियों से होती हुई यमुना किनारे मुरलीधर घाट ले गईं।

यहां कान्हा के भक्त होली के रसियाओं पर जमकर झूमे। गोकुल के जिन-जिन रास्तों से भगवान का डोला निकला, वहां लोगों ने भगवान के साथ होली खेलते हुए पुष्प वर्षा की ।
आइए आपको बताते हैं छड़ी मार होली से जुड़ी खास बातें…

लाठी की जगह छड़ी का होता है इस्‍तेमाल
वास्‍तव में छड़ीमार होली कृष्‍ण के प्रति प्रेममयी और भावमयी होली का प्रतीक है। दरअसल, भगवान कृष्‍ण ने ब्रज में अपना बचपन कान्‍हा के तौर पर बिताया। कान्‍हा बचपन में बहुत नटखट हुआ करते थे और गोपियों को सताया करते थे। ऐसे में कान्‍हा को सबक सिखाने के लिए गोपियां हाथ में छड़ी लेकर कान्‍हा उनके पीछे भागती थीं। बाल कृष्ण को कहीं चोट न लग जाए। इसलिए लाठी की जगह छड़ी का इस्‍तेमाल करती थीं।

गोपियों को 10 दिन पहले से किया जाता है तैयार
छड़ीमार होली खेलने वाली गोपियों को 10 दिन पहले से दूध, दही, मक्खन, लस्सी, काजू बादाम खिलाकर होली खेलने के लिए तैयार किया जाता है। लट्ठमार होली की तरह ही छड़ीमार होली का भी अपना अलग महत्‍व है।

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